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घर ज़िंदा है / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
दोपहर है
किचन से है
छौंक की आ रही तीखी झार / घर ज़िंदा है
उधर कलछुल
छन्न से बोली अचानक
इधर हमने बुना
सपनों का कथानक
आज का अख़बार
हो चुका बासी
पढ़ चुके हम उसे कितनी बार / घर ज़िंदा है
गा रहीं तुम
एक चिड़िया इधर चहकी
किचन की खिड़की खुली है
उधर बाहर बेल महकी
तुम हँसी
सुनकर उसे
खुश हो रहे हैं ये दरो-दीवार / घर ज़िंदा है
इधर यह कमरा
सुरीला हो गया है
बज रहा जो राग भीतर
वह नया है
कह रहा दिन
उधर देखो
हिल रहा है अलगनी का तार / घर ज़िंदा है