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घर तक थर्राते हैं / कुमार रवींद्र
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तूफ़ानी रातों में
समाधिस्थ पेड़
पूछते हवाओं से कौन रहा छेड़
सपनों के डेरे में
यह कैसी चाल
लहरों से कहते हैं
जाग रहे ताल
कौन रहा तारों को इस तरह खदेड़
बँटा हुआ आसमान
क्षितिजों के पार
सोचता - कहाँ तक है
अँधी दीवार
क्यों कोंपल असमय ही हो गयी अधेड़
पत्तों की बस्ती में
इतनी आवाज़
कौन कहे कोयल की
डरे हुए बाज़
घर तक थर्राते हैं दरवाजे भेड़