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घर ना सुहात ना सुहात बन बाहिर हू / पद्माकर
Kavita Kosh से
घर ना सुहात ना सुहात बन बाहिर हू ,
बाग ना सुहात जो खुसाल खुसबोही सोँ ।
कहै पदमाकर घनेरे घन घाम त्यों ही ,
चैत न सुहात चाँदनी हू जोग जो ही सोँ ।
साँझहू सुहात न सुहात दिन मौझ कछू ,
व्यापी यह बात सो बखानत हौँ तोही सौं ।
राति हू सुहात न सुहात परभात आली ,
जब मन लागि जात काहू निरमोही सौँ ।
पद्माकर का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।