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घर बाहर डोल गई फागुन की हवायें / उर्मिल सत्यभूषण

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घर बाहर डोल गई फागुन की हवायें
गुंजन सी बोल गई फागुन की हवायें

छू छू के अलकों को, चुपके से पलकों को
किसलय पट खोल गईं फागुन की हवायें

मंडराकर, लहराकर, इठलाकर इतराकर
नस नस रस घोल गई फागुन की हवायें

फूलों से कलियों से, तितली से, अलियो से
करके किल्लोल गईं फागुन की हवायें

चाहत की राहों में, सपनों की बाहों में
प्रीतों को तोल गई, फागुन की हवायें

रंगराती होली में, कुदरत की झोली में
रंगों को घोल गईं फागुन की हवायें

मजदूरन धरणी को, श्रमशीला जननी को
पंखा सा झोल गई फागुन की हवायें

महलों को झोंपड़ को, भूपत को हलधर को
सबको समतोल गई फागुन की हवायें

खुशियों के ज्यों शतदल, उर्मिल को दो इक पल
देके अनमोल गई फागुन की हवायें।