घर लौटते बाबू / सुदर्शन वशिष्ठ
एक
गोधूली के समय
भेड़ों के झुण्ड की तरह
निकलते हैं बाबू
सचिवालय की चरागाह से
जिनकी पीठ पर
लदी रहती हैं दिन की फाइलें
जिन्हें हाँकते रहते हैं
कुछ चुने हुए चरवाहे
पीठ झाड़ते हुए वे
जुगाली करते चलते हैं
और मिमियाते हैं
कि कितनी हरी घास
किसके हिस्से में आई
कौन भटकता रहा भूखा-प्यासा
कौन पी गया पूरी व्यासा।
दो
फाइलों के जँजाल से निकल
मुक्त हुआ
झूमता बतियाता निकलता है बाबू
फिर भी मुक्त नहीं होता
मन के एकांत में
छिपी रहती हैं फाइलें
जो बिल्ली की तरह गुर्राती हैं चुपके से।
एक महीने से दबा कर रखी
प्रोमोशन की फाईल
दो महीने से रोकी सैंक्शन की फाइल
सीनियोरिटी लिस्ट जिसमें झगड़ा है
ट्राँसफर प्रोपोजल जिसमें लफड़ा है।
दिनभर बुनता है वह फाईलों का जाल
तार-तार कर जोड़ता है एक बड़ा जाला
जिससे निकल नहीं पाता उम्रभर।
तीन
बतियाता है बाबू सचिवालय स बाहर होते ही
लिखी जब मैंने एक पेज की एंटी-नोटिंग
घूम गया साहब का दिमाग
एस. ओ. सुपरिंटेंडेंट को छोड़
मुझे बुलाया
'डील करने से पहले मुझे पूछ लिया करो भाई
ये तो करना है
इंस्ट्रक्शन है ऊपर से
कोई वे-आउट निकालो
नियमों के कीड़े हो।'
'ये तो बड़ा मुश्किल है जनाब
नियम संलग्न हैं पताका 'क' पर
देख लीजिये।
जब मैंने कहा तो सिर पकड़ लिया साहब ने
कुछ करो यार कुछ सोचो मेरे भाई।
आज मैं हुआ साहब का भाई और यार
आज मैंने जाना
यहाँ सब बाबू हैं
कोई छोटा है कोई बड़ा
मुझे सच को सच लिखने की आज़ादी तो है
इसे वह भी नहीं।
चार
घर में हाथ मुं धो सुस्ताते हुए
पत्नी को बताता है बाबू
आज मैंने लिखी वह नोटिंग
कि देखता रह गया साहब
आगे कुछ नहीं लिख पाया
आज मैंने जारी किया मीमो
आज इन्क्रीमेंट लगाई
बड़े बाबू को इंस्ट्रक्शन दिखाई
चपरासी को नौकरी करनी सिखलाई।
पत्नी अवाक् देखती रहती है
बाबू का प्रफुल्लित चेहरा
हार कर फटकार देती है
सब्ज़ी तो लाए नहीं
अब क्या बनाऊँ अपना सिर।
पाँच
घर लौटता बाबू
आज फिर लाया है एक पैड सफेद कागज़
दो अदद पैन
सब की नज़र बचाकर
हालाँकि बच्चे चिढ़ते हैं
पापा मत लाया करो ये घटिया पेन
जो लिखता नहीं
टीशू पेपर सा घटिया सरकारी कागज़
जिसमें स्याही छरती है।
सोचता है बाबू
सरकार से चुराये भी क्या
हर चीज़ कई बार लुट-लुट कर
पहुँचती है उस तक।
छ:
सोचता है घर लौटता बाबू
कितना मासूम है नया अफसर
अभी जवान है नया-नया आया है सर्विस में
भले घर का है, इसलिये सोचता है भला
डरता है खरे-खोटे से, ईश्वर से।
धीरे-धीरे पता चलेगी कुर्सी की ताकत
लगेगा इसके मुँह में खून
आज इसने एक बल्ब खाया है
कल खाएगा पँखे हीटर
फिर खा जाएगा कुर्सी मेज
खा जाएगा स्टेशनरी स्टोर
खा जायेगा सरिया सीमेंट
खा जायेगा कार स्कूटर
दाँव लगा तो पूरी मोटर
सोचता है घर लौटता बाबू
यह जितना बड़ा अफसर बनता जाएगा
उतना ही छोटा आदमी होता जाएगा।
सात
आज खुश है बाबू घर लौटते हुये
अभी-अभी ओके होकर आया है सी. एम. से
जो उसने लिखा था अपनी कलम से
ऐसा अक्सर हुआ कि उसका लिखा
दस दस्तखतों से गुज़र सी. एम. से ओके हुआ है
पर आज वह बुहत खुश है
उसने लिखा हैः
बाबू बुरी शह है जनाब! बच के रहिये
एक वही है जो लिखता है नोटिंग
उसे सौ रुपये मासिक नोटिंग भत्ता दीजिये
अनुमोदनार्थ प्रस्तुत!
वह जानता है
अन्धों बहरों की नगरी है सचिवालय
सब अनपढ़ जाहिल हैं
एक बाबू ही है जो लिखता है लम्बी नोटिंग
एक बाबू लिखता है लैटर
दूसरा बाबू पढ़ता है
बाकी सब अँगूठामार हैं
चाहे पास किये हों सौ इम्तिहान
मिली हो घूमने वाली कुर्सी
हाँ या न करने की ताकत नहीं है इनमें।
आठ
आज शनिवार है
और घर लौटते बाबू को ठण्ड लगी है
छोड़ आया है पुराना कोट कुर्सी पर
खुली ऐनक मेज़ पर
आज ऐसा ग्यारह बजे ही कर दिया
चाय के बाद कोट से ढाँप दी कुर्सी की पीठ
ऐनक फाईल पर बिछाई और चल दिया।
दूर चले जाने पर भी वह
उपस्थित रहा सचिवालय में
बाज़ार में खरीदते हुए बच्चों के लिए मिठाई
घरवाली के लिए सूट
दो बजे घर की बस में बैठे हुये भी
लोग सोचते रहेः
अरे! यहीं कहीं होगा दूसरी ब्राँच में
सेक्रेटरी, अँडर सेक्रेटरी या क्या पता मिनिस्टर के पास
डिस्कस कर रहा होगा फाइलें
सभी तो अफसर हैं उसके।
सुबह ग्यारह से पहले आया है भूखे पेट
कैंटीन में खा रहा होगा समोसे
भैया! जरा रुको पेशाब गया होगा
तुम लोग तो ज़रा भी इँतज़ार नहीं करते
वह भी आदमी है
इतना तो हक है उसे।
क्या पता गया होगा डिस्पेंसरी
एकदम हो गया बीमार
टेंश, बी. पी., शूगर, अलसर
कुछ भी हो सकता है उसे
चाय पीता है दिन भर
आदमी है आखिर
कोई भी बीमारी हो सकती है उसे।
गया होगा जमा कराने बिजली का बिल
या बच्चों के स्कूल की फीस
या क्या पता देने कोई सीक्रेट इन्फर्मेशन
विरोधी पार्टी के एम. एल. ए. को
भैया उसे भी तो जीना है सरकार बदलने पर।
अभी-अभी आएगा भीतर व्यस्त-सा
कोई किस्सा सुनाएगा डिस्कशन का
होगा बहुत उत्तेजित
करेगा कुर्सी आगे पीछे पीयेगा पानी
या क्या पता
बैठ जायेगा चुप गुमसुम घुसुन्न सा
बोलेगा नहीं किसी से
सब उसे निहारेंगे कि कुछ तो उगले।
या एकाएक बरस पड़ेगा मन्त्री मुख्यमन्त्री पर
पटकेगा फड़फड़ाती फाईल
जिस पर कल जतन से लिखी थी नोटिंग
या क्या पता गाली निकाले सेक्रेटरी को
इतने बड़े गणतंत्र में
इतना तो हक है उसे।
बाबू कईयों के लिए कई जगह होता है
जहाँ होता है, वहाँ नज़र नहीं आता
जहाँ नहीं होता, वहाँ होता है।
बहुत बड़ा जादूगर है मायावी है
पहुँचा हुआ सँत है बाबू
जो मौजूद रहता है
कई जगह एक समय एक साथ
नौ
घर लौटता बाबू
उंगलियों पर गिनता है
जी. पी. एफ. में जमा राशि
महीने भर की कटौतियाँ
और बची जमा पूँजी
जिससे करनी है बेटी की शादी।
उँगलियों पर गिनता है साहब का हिसाब
कितना लगा दफ्तर में
और कितना घर में
गिनता है ऊपर से नीचे तक
तय हुई कमीशन
गुणा, भाग शत प्रतिशत
गिनता है बेटे की पढ़ाई के सोलह साल
जिसे नहीं बनाना है
किसी भी कीमत पर बाबू।
जब उसकी उंगलियाँ गिनती हैं ज़िंन्दगी का हिसाब
लोग सोचते हैं पागल होता जा रहा है उम्र के साथ।
दस
घर लौटता बाबू
पाँच नहीं बजने देता
चार के बाद तेज़ हो जाती है उसकी घड़ी
सलीके से रख देता है बिखरी फाइलें
बाँध लेता है रोटी का डिब्बा
दराज़ में लगाता है ताला
इस उतावली में कभी-कभी वह
स्कूल का बच्चा हो जाता है
कब घण्टी बजे और
वह भागे।
बाबू महिमा
एक
नाई के उस्तरे से
धारदार होती है बाबू की कलम
सचमुच तलवार होती है
बाबू की कलम
जब रुकती है
तो रुक जाती है सरकार
जब चलती है करती है वार
अफसर की पीड़ा है बाबू
कलम का कीड़ा है बाबू।
दो
सचिवालय का पण्डा है बाबू
विधि विधान से करवाता है
फाईलों का सँस्कार।
गँगा की तरह सचिवालय
जहाँ अनेकों फाइलें
जब स्नान और सँस्कार के लिए जाती हैं
कुछ वापिस आती हैं परिष्कृत होकर
पुण्य फल से
और कुछ
हड्डियों की तरह कभी वापिस नहीं आतीं
छोटी बड़ी मछलियाँ खा जाती हैं इन्हें।