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घर लौट आया था / रामदरश मिश्र

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मैं किसी देश का
बड़ा राजनीतिक पदाधिकारी बना दिया गया हूँ
और डाल दिया गया हूँ
एक विशाल वैभव पूर्ण भवन और उसके परिसर में
सुरक्षा के घेरे में समय बीत रहा है कैदी सा
अपने मन से
न कहीं आ-जा पा रहा हूँ
न खा-पी पा रहा हूँ
न बोल-बतिया पा-रहा हूँ अपने लोगों से
न अपने ही उद्यान में अकेले टहल पा रहा हूँ
न मुक्त संवाद कर पा रहा हूँ
चिड़ियों की चहक और फूलों की महक से
एकांत में बैठ कर
कोई कविता भी नहीं गुनगुना पा रहा हूँ
मैं तो कागज पर अंकित कार्यक्रम बन गया हूँ
जनता के बीच जाना होता है
तो मेरे उसके बीच
जयजयकार की दीवार खड़ी हो जा रही है
उफ कहाँ आ गया हूँ
घुटन सी हो रही है
अफनाता हूँ, चिल्लाता हूँ-
मुझे जाने दो, मुझे जाने दो यहाँ से
‘चाय गरम’ आवाज़ टकराती है मुझसे
नींद टूट जाती है
देखता हूँ पत्नी मुस्कराती हुई
चाय की प्याली लिए खड़ी हैं
ओह तो वह सपना था क्या
विश्वास करने के लिए
दीवारों पर नज़र डालता हूँ
आलमारी में पुस्तकें मुस्करा रही थीं
घर के बाहर की सड़क से
लोगों के जाने-जाने
बोलने-बतियाने की आहट सुनाई पड़ रही थी
ताज़ा हवा के लिए खुले आँगन में चला गया
वहाँ मेरे साथी फूल हँस रहे थे
घर की बच्चियों की तरह
छोटी-छोटी चिड़ियाँ चहचहा रही थीं
बगल के रसोई कक्ष से
बरतनों के खनकने की आवाज़ आ रही थी
और पकते अन्न की खु़शबू पुकार रही थी
यानी मैं घर लौट आया था
उफ कितना भयानक सपना था वह।
-2.4.2015