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घर वापसी / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
साबरमती रुकी है । इंजन बिगड़ गया है ।
ठीक-ठाक करने में कितने हाथ लगे हैं
फ़ैज़ाबाद ने ख़बर पा कर, सुना, कहा है
इंजन सुलभ नहीं है । यात्री थके-थके हैं ।
घंटा गुज़र गया, तब गाड़ी आगे सरकी
आने लगे बाग़, हरियाले खेत, निराले;
अपनी भूमि दिखाई दी पहचानी, घर की
याद उभर आई मन में; तन रहा सम्भाले ।
क्या-क्या देखूँ, सबसे अपना कब का नाता
लगा हुआ है । रोम पुलकते हैं; प्राणों से
एकप्राण हो गया हूँ, ऎसा क्षण आता
है तो छूता है तन-मन कोमल बाणों से ।
अपने आस-पास हूँ, खोया हूँ, अपने में,
जैसे बहुत बिछोही मिल जाए सपने में ।