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घर वापसी / रश्मि भारद्वाज

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घर वापसी के रास्ते में
आता है एक मरघट
हिण्डन के मटमैले कीचड़ के साए में
भागती-चीख़ती सड़क के किनारे
किसी औघड़ साधु-सा पड़ा
राख और कुत्तों से सना
अकेला
निर्लिप्त, निर्विकार होकर
उन शरीरों को जलाता
जो शायद चन्द लम्हे पहले ही धडक रहे थे
अपनी ज़िन्दा हसरतों के साथ
 
आयताकार खाँचे नियत हर शरीर के लिए
बस उतने ही बड़े जितने में समा जाए वह सहूलियत से
लकड़ियों के ढेर के बीच से कभी झाँक जाती हैं
हथेली भर लाल चूड़ियाँ
कभी कहीं से छिटक आती है
एक रामनामी चादर
या फिर झूलते हुए माँस वाला एक हाथ
कि जैसे पकड़ लेना चाहता हो
छोड़ कर जाती हुई हथेलियाँ
कि जैसे बटोर लेना चाहता हो
अशेष इच्छाएँ, अधूरी कामनाएँ जीवन की
जो लिपटी होती हैं शरीर से आख़िरी साँस तक
नहीं जाती दफ़्न करने या जलाने पर भी
तैरती रहती हैं हमारे आसपास कहीं
बन कर यादें, प्रार्थनाएँ, मनौतियाँ

अब जबकि मृत्यु उपलब्ध है हर कहीं
ख़रीदी जा सकती है
दवा की दुकानों से चन्द पैसों में सहजता से
या कि बस काटनी होती है सुकोमल पतली एक नीली नस
जीवन को सहेजती
या फिर तेज़ रफ़्तार से भागती सड़क पर
छोड़ देना होता है ख़ुद को
भूलकर सब कुछ
और यह सब कुछ बस चन्द क्षणों में ही
सच बहुत आसान है चुन लेना
यह दूसरा रास्ता जीवन पर भारी
  
और ऐसे तमाम क्षणों में
हर बार कौंध जाता है आँखों के आगे वह मरघट
जले हुए शरीरों की राख
और उन पर लोटते कुत्ते
मण्डराते चील और कौए
 
मृत्यु ! तुम बहुत असुन्दर हो
और हो बहुत अकेली

अनायास तेज़ हो उठते हैं
घर को लौटते मेरे क़दम
ज़िन्दगी जीत जाती है
फिर एक बार
जीत ही जाए हर बार शायद
हमारे लिए तय की गई
उस अन्तिम वापसी से पहले