घर शहर की बत्तियाँ गुल हैं
ख़्वाब छत पर हैं टहलते
खोजते संभावनाएँ
मात्र हम परछाइयों को
ओढ़कर इतरा रहे हैं
हो ऋचाओं से विमुख
निज लक्ष्य ही बिसरा रहे हैं
दृष्टि में उगने लगी हैं
दंश सी संकीर्णताएँ
रोज़ मदिरा सोच में गुम
पीढ़ियाँ हैं जागरण पर
चंद नंगे तन सजाते
सभ्यताएँ आचरण पर
वासना की दलदलों धँसतीं
सृजक नवकल्पनाएँ
चुप्पियों को तौलती हैं
अनगिनत चाहें गगन पर
लोग सोए हैं लपेटे
नाग यादों के बदन पर
हैं थके सहमे हुए सपने
सजग हैं वर्जनाएँ