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घर सीरीज / गणेश पाण्डेय

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1
 
यह अटाला ही अब जिसका ठिकाना है
                                             
कहाँ हो तुम
उजाले में हो कि किसी अन्धेरे में
बोलो, अकेले में हो
कि किन्हीं अपनों के बीच
कि यादों के किसी तहख़ाने में
बन्दी

किसी छत के नीचे हो
कि खुले आसमान में
पृथ्वी के किस कोने में हो
इस वक़्त
कितनी तेज़ है धूप
और हवा कितनी गर्म
जहाँ भी हो
कैसी हो
किसी घर में हो
सुकून का घर है
कि घर है
कोई खिड़की है घर में
जिसके आसपास हो
                               
जो दिख जाए
यह अटाला कहीं से
तो देख लो
काम भर का है यहाँ भी सब

इस अटाले पर,
बस,
एक मैं हूँ
जो किसी काम का नहीं हूँ
चाय की पत्ती है
तो चीनी नहीं है मेरे पास
चीनी है तो माचिस नहीं
माचिस है
तो उसमे अब आग कहाँ
तुम्हारे पास आग है

ऐसे ही बदल जाती हैं चीज़ें
बदलने के लिए ही होती हैं चीज़ें
इस दुनिया को देखो
कितनी बदल गई है
जहाँ होना था चैन का घर
लग गया है वहाँ मुश्किलों का कारख़ाना
रोज़ सुबह
एक थका हुआ आदमी निकलता है घर से
और
शाम को थोड़ा और थका हुआ
लौटता है बाहर से

अब कोई नहीं देखता चाव से
मेरी अधलिखी कविता
किसे फ़ुरसत है कि देखे
क्या पक रहा है
क्या रिस रहा है
मेरे भीतर
किससे कहूँ कि आओ बैठो
घड़ीभर
मेरे इर्द-गिर्द
                                             
ज़ंजीर की झनकार सुनो
देह के हर हिस्से से उठती हुई
पुकार सुनो
ये देह और देह का मूल
सब हुआ है थककर चूर

कैसी हो तुम
किस हाल में हो
किसी सितार का क़ीमती तार हो
ख़ुश हो
कि मेरी तरह हो
साँस है कि टूटती नहीं
और लेना उससे भी कठिन
भला, अब कौन आएगा
आखिरी वक़्त में
इस भीड़ भरे एकान्त में
मेरा पुरजा-पुरजा जोड़ने

कैसा आदमी हूँ
बावला नहीं हूँ तो और क्या हूँ
अपने को ख़त्म करते हुए
सोचता हूँ ज़िन्दगी के बारे में
अपनी कविता का अन्त जानते हुए --
इस कबाड़ के ढेर पर
एक फेंका हुआ सितार हूँ, बस !
और
यह अटाला ही अब जिसका ठिकाना है ।

2

कितना अच्छा होता जो प्रेम होता
                                         
अच्छा होता
जो मेरा घर
हरी-हरी और कोमल पत्तियों के बीच
खिले हुए फूलों की गन्ध
और पके हुए फलों के बिल्कुल पास
चोंच भर की दूरी पर होता ं
किसी दरख़्त पर
एक-एक तिनका जोड़कर
और
नादान आदमियों की नज़र बचाकर
सुरुचि से बनाया गया
सबसे छोटा
घर

अच्छा होता
जो पक्षियों के बीच होता
मनुष्यों के शब्द
और सभ्यता की क़ैद से मुक्त होता
प्रेम और जीवन के संगीत में
जितना चाहता डूबता
न किसी से घृणा
न कोई दम्भ
न कोई लूट
न पीढ़ियों के लिए कुछ
न कोई दिखावा
न कोई टण्टा
न कोई रोना
न किसी से अप्रेम
न किसी पर क्रूरता
न किसी से छल
न असत्य का आग्रह
न किसी के संग बुरा होता

जो किसी का साथ होता
मन से मन का साथ होता
साथ में जो होता
दोनों के साथ होता
साथ रहते तो रहते
न रहते तो न रहते
न मारकाट होती
न मनमुटाव होता
कितना अच्छा होता
जो प्रेम होता

संघर्ष जीवन का होता
जैसे रहते भूधर और वटवृक्ष
जैसे छोटे-छोटे पौधे
और कीट-पतंग
प्रचण्ड धूप में
अटूट बारिश में
और भयँकर आन्धी-तूफ़ान में
ज़िन्दा रहते
घर रहते नहीं रहते
घर के मुहताज नहीं रहते

हौंसले
और कोशिश से फिर बनता धर
एक नहीं हज़ार बनता
रुपया रहता नहीं रहता
रुपये का क्या ग़म रहता
हम रहते
                                             
और घर रहता
 
न कोई कर रहता
न कोई डर रहता
न कोई अफ़सर
न कोई काग़ज़-पत्तर
बस, हम रहते
सरोसामान रहता नहीं रहता
जीवन साथ रहता
मेरे मन के मीत तुम क्या रहते
तोता होते कि मैना रहते

छोड़ो भी अब
जब होते तब होते
और
उस घर का क्या
जो बन नहीं सका
जब उसमें रहते तब रहते
अनुभव की उस दुनिया में
जिस दुनिया में
और
जैसे घरों में रहते हैं हम
कैसे रहते हैं
किसी से कह नहीं सकते
और चुप रह नहीं सकते ।

3

यह घर शायद वह घर नहीं है
                                       
जिस घर में रहते थे हम
यह शायद वह घर नहीं है
कहाँ है वह घर
और
कहाँ है उस घर का लाडला
जो दिन में मेरे पैरों से
और अन्धेरी रातों में
मेरे सीने से चिपका रहता था
कहाँ खो गया है
बहती नाक और खुले बाल वाला
नंग-धड़ंग मेरा छोटा बाबा
मुझे ढूँढ़ता हुआ
कहाँ छिप गया है
किस कमरे में
किस पर्दे के पीछे
कि माँ की ओट में है
नटखट

यह कौन है जो तन कर खड़ा है
किसका बेटा है मुझे घूरता हुआ
बेटा है कि पूरा मर्द
भुजाओं से
पैरों से
और छाती से
फट पड़ने को बेचैन
आख़िर क्या चाहिए मुझसे
किसका बेटा है यह
जो छीन लेना चाहता है मुझसे
सारा रुपया
मेरा बेटा है तो भूल कैसे गया
माँगता था कैसे हज़ार मिट्ठी देकर
एक आइसक्रीम
एक टाफ़ी और थोड़ी-सी भुजिया
माँग क्यों नहीं लेता उसी तरह
मुझसे मेरा जीवन
किसका है यह जीवन
यह घर

कहाँ छूट गई हैं
मेरी उँगलियों में फँसी हुईं
बड़ी की नन्ही-नन्ही कोमल उँगलियाँ
उन उँगलियों में फँसा पिता
कहाँ छूट गया है
किसी को ख़बर न हुई
हौले-हौले हिलते-डुलते
नन्ही पँखुड़ी जैसे होंठों को
पृथ्वी पर सबसे पहले छुआ
और सुदीप्त माथा चूमा
पहली बार
जिनसे
मेरे उन होंठों को क्या हो गया है
काँपते हैं थर-थर
यह कैसा डर है
यह कैसा घर है

छोटी की छोटी-छोटी
एक-एक इच्छा की ख़ातिर
कैसे दौड़ता रहा एक पिता
अपनी दोनों हथेलियों पर लेकर
अपना दिल और कलेजा
अपना सबकुछ
जो था पहुँच में सब हाज़िर करता रहा
क्या इसलिए कि एक दिन
अपनी बड़ी-बडी आँखों से करेगी़
पिता पर कोप

कहाँ चला गया वह घर
मुझसे रूठकर
जिसमें पिता पिता था
अपनी भूमिका में
पृथ्वी का सबसे दयनीय प्राणी न था
और वह घर
जीवन के उत्सव में तल्लीन
एक हंसमुख घर था
यह घर शायद वह घर नहीं है
कोई और घर है
पता नहीं किसका है यह घर ।
                   
4

जो उसके पास हुआ मुझसे बड़ा दुख

इस घर से
जो निकलना ही हुआ
तो किधर ले चलेंगे मुझे
मेरे क़दम
कहीं तो रुकेंगे
कोई ठिकाना देखकर
किस घर के सामने रुकेंगे
ये पैर
अब इस उम्र में
किस अधेड़ स्त्री को होगा भला
मेरी कातर पुकार का इन्तज़ार
फिर मिली कोई चोट
तो मर नहीं जाऊँगा
डरकर
फिर मुड़ेंगे किधर मेरे पैर
किस दिशा में ढूँढ़ेंगे
कोई रास्ता
किस बस्ती में पहुँचकर
                                             
किस स्त्री के कन्धे पर रखूँगा सिर
क्या करूँगा जो उसके पास हुआ
मुझसे बड़ा दुख
दो दुखीजन मिलकर
बना सकते हैं क्या
एक छोटा-सा
सुखी घर ।

5
  
कैसे निकलूँ सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
                                            
कैसे निकलूँ इस घर से
सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
कितनी गहरी है यशोधरा की नीन्द
एक स्त्री की तीस बरस लम्बी नीन्द
नीन्द भी जैसे किसी नीन्द में हो
चलना-फिरना
हंसना-बोलना
सजना-संवरना
और लड़ना-झगड़ना
सब जैसे नीन्द में हो

बस, एक क्षण के लिए
टूटे तो सही यशोधरा की नीन्द
मैं यह नहीं चाहता कि मेरा निकलना
यशोधरा के लिए नीन्द में कोई स्वप्न हो
मैं निकलना चाहता हूँ उसके जीवन से
एक घटना की तरह
मैं चाहता हूँ कि मेरा निकलना
उस यशोधरा को पता चले
जिसके साथ एक ही बिस्तर पर
तीस बरस से सोता और जागता रहा
जिसके साथ एक ही घर में
कभी हंसता तो कभी रोता रहा
मैं उसे इस तरह
नीन्द में
अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहता
मैं उसे जगाकर जाना चाहता हूँ
बताकर जाना चाहता हूँ
कि जा रहा हूँ
मैं नहीं चाहता कि कोई कहे
एक सोती हुई स्त्री को छोड़कर चला गया
मैं चाहता हूँ कि वह मुझे जाते हुए देखे
कि जा रहा हूँ
और न देख पाते हुए भी मुझे देखे
कि जा रहा हूँ ।

6
  
उठो, यशोधरा तुम्हारा प्यार सो रहा है

कैसे जगाऊँगा उसे
जिसे जागना नहीं आता
प्यार से छूकर कहूँगा उठने के लिए
कि चूमकर कहूँगा हौले से
जागो, यशोधरा !
देखो कबसे जाग रही है धरा
कबसे चल रही है सखी हवा
एक-एक पत्ती
एक-एक फूल
एक-एक वृक्ष
एक-एक पर्वत
एक-एक सोते को जगा रही है
एक-एक कण को ताज़ा करती हुई
सुबह का गीत गा रही है

उठो, यशोधरा !
तुम्हारा राहुल सो रहा है
तुम्हारा घर सो रहा है
तुम्हारा संसार सो रहा है
तुम्हारा प्यार सो रहा है

कैसे जगाऊँ तुम्हें
तुम्हीं बताओ, यशोधरा !
किस गुरु के पास जाऊँ
किस स्त्री से पूछूँ
युगों से
सोती हुई एक स्त्री को जगाने का मन्त्र
किससे कहूँ कि देखो
इस यशोधरा को
जो एक मामूली आदमी की बेटी है
और मुझ जैसे
निहायत मामूली आदमी की पत्नी है
फिर भी सो रही है किस तरह
राजसी ठाट से

क्या करूँ
इस यशोधरा का
जिसे
मेरे जैसा एक साधारण आदमी
बहुत चाहकर भी
जगा नहीं पा रहा है
और
कोई दूसरा बुद्ध ला नहीं पा रहा है।

7

बहुत उदास हूँ आज की रात
                              
किससे कहूँ
कि मुझे बताए
अभी कितने फेरे लेने होंगे वापस
जीवन की किसी उलझी हुई गाँठ को
सुलझाने के लिए
जो खो गया है
उसे दुबारा पाने के लिए
कहाँ हो, मेरे प्यार !
देखो
जिस छोटे-से घर को बनाने में
कभी शामिल थे कई बड़े-बुजुर्ग
आज कोई नहीं है उनमें से
कितना अकेला हूँ
हज़ार छेदों वाले इस जहाज़ को
बचाने के काम में
जहाज़ का चूहा होता
तो कितना सुखी होता
मेरी मुश्किल यह है कि आदमी हूँ

कितना मुश्किल होता है कभी
किसी-किसी आदमी के लिए
एक धागा तोड़ पाना
किसी तितली से
उसके पँख अलग करना
किसी स्त्री के सिन्दूर की चमक
मद्धिम करना
और अपने में मगन
एक दुनिया को छोड़कर
दूसरी दुनिया बसाना

कोई नहीं है इस वक़्त मेरे पास
कभी न ख़त्म होने वाली
इस रात के सिवा
बहुत उदास हूँ आज की रात
यह रात
मेरे जीवन की सबसे लम्बी रात है
कैसे सम्भालूँ ख़ुद को
मुश्किल में हूँ
एक ओर स्मृतियों का अधीर समुन्दर है
दूसरी तरफ दर्द का घर
कुछ नहीं बोलते पक्षीगण
कि जाऊँ किधर
पत्तियाँ भूल गई हैं हिलना-डुलना
चुप है पवन
बाहर
कहीं से नहीं आती कोई आवाज़
बहुत बेचैन हूँ आज की रात
किससे कहूँ
कि अब इस रात से बाहर जाना
और इसके भीतर ज़िन्दा रहना
मेरे वश में नहीं ।