भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर से घर का-सा वास्ता न रहा / योगेन्द्र दत्त शर्मा
Kavita Kosh से
घर से घर का-सा वास्ता न रहा,
अब वो टूटा-सा आइना न रहा ।
अब मैं अपने निशाँ कहाँ ढूँढूँ,
शहर में कोई मक़बरा न रहा ।
सोचकर बोलता हूँ मैं सबसे,
बात करने का अब मज़ा न रहा ।
चल कि अब रास्ता बदल लें हम,
अब कोई और रास्ता न रहा ।
मोड़ हैं, मरहले भी हैं, लेकिन
वो तग़ाफ़ुल, वो हादसा न रहा ।
अब चला है वो तोड़ने चुप्पी,
जब कोई उस पे मुद्दआ न रहा ।
हाय वो जुस्तजू, वो बेचैनी,
बीच का अब वो फ़ासला न रहा ।
जब ज़मीं पर उतर ही आए, तो
कामयाबी का भी नशा न रहा ।
ज़िन्दगी का नहीं रहा मक़सद,
अब कोई मुग़ालता न रहा ।