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घर से घर तक / चंद ताज़ा गुलाब तेरे नाम / शेरजंग गर्ग
Kavita Kosh से
सारी दिनचर्या उलझी अगर-मगर में
पौ फटी और ताज़ा अख़बार संभाला
अनमने हृदय से हर अक्षर पढ़ डाला
पर नहीं मिला अपनापन किसी खबर में!
मुँह धोया अथवा हफ़्तों बाद नहाये
डालडा लगे दो एक पराँठे खाये
पत्नी से बोले, लेकिन बोल न पाये
फिर निकल पड़े हम मीलों बड़े शहरों में!
आफ़िस में पहुँचे और हाज़िरी भर दी
की इधर-उधर जाकर आवारागर्दी
कुछ से बोले है आज ग़ज़ब की सर्दी
पर नहीं तनिक भी मिली कहीं हमदर्दी
जब टूट न पाई ऊब किसी क़ीमत पर
तब अफसर को ही डाँट दिया दफ्तर में!
छुट्टी करके तब टी-हाऊस में आये
यारों के साथ बैठकर कुछ बतियाये
पर खुलकर एक ठहाका लगा न पाये
थे आस पास कुछ मनहूसों के साये
तो लौटकर आये हम मुँह लटकाये घर में
सारी दिनचर्या उलझी अगर-मगर में।