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घर से जब मैं निकल पड़ा हूँ / कृष्ण मुरारी पहारिया
Kavita Kosh से
घर से जब मैं निकल पड़ा हूँ
मुझे कहीं तो जाना होगा
अपने थके हुए प्राणों को
दिशा-दिशा भटकाना होगा
इतना तो विश्वास लिए हूँ
ऐसी धरती कहीं मिलेगी
सपनों की यह बेल नयन में
अवसर पाकर जहाँ खिलेगी
इसीलिए पगडंडी पकड़े
जिधर मुड़ रही , चला जा रहा
टुकड़ा एक धूप का पाने
बरस-बरस से छला जा रहा
चाहे जितना अंधकार हो
मुझे प्रभाती गाना होगा
भीतर कोई बोल रहा है
चले चलो रुकना मरना है
अच्छे दिन आने वाले हैं
और तुम्हें ही कुछ करना है
सन्नाटे में शक्ति दे रही
कहीं उठी कोई स्वर लहरी
भीतर की आवाज़ न सुनती
क्या कीजे, दुनिया है बहरी
यह सन्नाटा तोड़ मुझे ही
अब साँकल खटकाना होगा