घर से दूर / मिथिलेश श्रीवास्तव
पीछे वह छोड़ आया था एक लम्बी सड़क
आगे थी एक और लम्बी सड़क
कोई घर नहीं था जिधर से वह आ रहा था
जिधर वह जा रहा था उधर भी कोई घर नहीं था
सड़क पक्की थी लेकिन उस पर धूल की कई परतें थीं
कई सड़कों से गुज़रने के निशान जैसे
जिनको पहचानना मुमकिन नहीं था !
धूल जो पैरों पर थी वह पहचान नहीं थी लेकिन उसे
घर पहुँचकर ही धोया जा सकता था
कुछ और लोग थे सड़क पर । सिर खुजलाते ।
बार-बार लौटते । पलटते । और उसी सड़क से गुजरते ।
और सड़क से मुक्ति के उपाय पूछते
कोई पूछता था कुछ देर बाद बदल जाने वाली तारीख़
कोई पूछता था किसी घर, किसी पेड़, किसी छाया के बारे में
कोई पूछता ता इतनी दूर कैसे आ गए किसके सहारे ।
कुछ लोग कुछ नहीं पूछ रहे थे । चलते चले जा रहे थे ।
कभी हाथ भाँजते, कभी पैर पटकते, कभी सिर खुजलाते ।
जैसे उन्हें मालूम था कि रास्ते में जो मिल रहा था
वहाँ खम्भा था बिजली या टेलीफ़ोन या स्ट्रीट लाइट का ।