घर से लौटता हूं जब-तब / विजय सिंह नाहटा
घर से लौटता हूँ जब-तब
उदास हो जाती देहरी
यदा कदा बीता हूँ इसी भटके हुए सूनेपन में
यूं दे दिया गया निराकार इसी की गोद में: स्नेह भरा, साभार
बुझे मन से कहता: अलविदा
रह रह हाथ हिलाकर
अहाते के पेड़ से झरते पत्ते
झर ...झर ...झर ...
और; मौन आंसुओं की अंत: सलिला बहती भीतर
प्रयाण पथ पर
मेरे होने की चश्मदीद:
हर पल की आवाजाही का इतिवृत्त जानती
घर कीं उजली देहरी
वैसे, यह बरतती निज कौशल
चतुर सुजान दीख पड़ती
एक हाथ में थामे डोर लंबी
दूसरे में छङीनुमा चाबुक: चमकीला
यूं वह झोंकती मुझे दुनिया के रण में
दूसरे में लिए चाबुक हांकती अनन्त तक
फिर लौटा लाती खींच कर अपने भीतर
दुनिया भर की तमाम देहरी एकबारगी
झोंकती अस्तित्व से अचूक बाहर
किसी निर्जन में
फिर लौटा लाती खींच कर अपने भीतर
एक सहेजी हुई याद।