भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर : जंगल / धनंजय वर्मा
Kavita Kosh से
लौटना ही है अब तो
वन की इस गोद से
उस वीराने में, जहाँ घर है।
सल्फ़ी, महुआ और शाल
वहाँ नहीं हैं,
लालाजी, बिल्लू और कुमार
वहाँ नहीं हैं
बाई और अम्मा के दरस-परस में
लौट आता बचपन
वहाँ नहीं है,
घर में पहुँचकर
जंगल की क्यों याद आती है... !