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घाट-पत्थर ! / रमेश रंजक

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घाट-पत्थर
कभी जल में थे
मगर हैं आज ये बीमार थल पर
                           घाट-पत्थर

फेंक दो इनको
नहीं प्रतिमान यह बहती नदी के
सिद्ध होते जा रहे व्यवधान
                     मौज़ूदा सदी के

बेवज़ह ही बन रहे हैं
कामगर के लिए अफ़सर
                    घाट-पत्थर

हैं बनाने तीर्थ जिनको
धार के नज़दीक आएँ
वे पुराना आइना तोड़ें
                नए साँचे बनाएँ

फिर लहर की नब्ज़ पर
उँगली धरें, कह जाएँ खुल कर
                          घाट-पत्थर