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घाट से हटकर / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
जाल है भीतर नदी के
घाट से हटकर नहाना।
पीठ पर लहरें, हवायें
झेलते हैं
आइने-सा
मुस्कराकर
आदमी से खेलते हैं
भीड़ से भीगे तटों के-
पत्थरों का क्या ठिकाना?
धार उल्टे पाँव चलकर
सीढ़ियों से
सट रही है,
फिर करोड़ों की इमारत
हाँ-नहीं में छँट रही है,
हर कदम पर सिर झुकाते
भूल बैठे सिर उठाना।
बाँस पर बैठे परिन्दे
हवा का
रुख भाँपते हैं,
जब हवेली में लगे-
रंगीन पर्दे काँपते हैं
एक शहजादी समय पर
छींट जाती चार दाना।