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घाव ऐसे मिले हैं / विपिन सुनेजा 'शायक़'

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घाव ऐसे मिले हैं मौसम से
और गहरा गये हैं मरहम से

आग बरसा रहा है फिर सावन
चल पड़ीं फिर हवाएँ पच्छम से

ख़ूब नुस्ख़ा बता गये तुम भी
रोग बढ़ने लगा है संयम से

मैंने जीवन को देर से जाना
मैं भी कुछ कम नहीं हूँ गौतम से

मेरी आँखों में मिल गयी आख़िर
जो नदी खो गयी थी संगम से