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घाव हरा है / गरिमा सक्सेना
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राजमार्ग पर सपने सजते
पगडंडी का घाव हरा है
झोपड़पट्टी छोड़ ख्वाब में
जिसने हैं मीनारें देखीं
चटक-मटक वाले कपड़ों सँग
जिसने मोटर कारें देखीं
वह क्या जाने पकी फसल में
कितना भू ने नेह भरा है
जिस बरगद ने छाया दी थी
जिस पनघट ने प्यास बुझायी
जिस डाली ने उसे झुलाया
जिस घर ने पहचान दिलायी
आज यही सब उसकी खातिर
केवल बचपन का कपड़ा है
माना की वह भूल गया है
नहीं उसे पर भूला आँगन
अब भी उसकी एक झलक से
तन-मन हो जाता है रौशन
बचपन की सुधियों से सज्जित
अब भी वह छोटा कमरा है