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घाव / सुशान्त सुप्रिय
Kavita Kosh से
बेदाग़ नहीं गुज़र पाता हूँ
इन रास्तों से
कभी कालिख़ लग जाती है
कभी रक्त-रंजित हो जाते हैं कपड़े
यदि लगना ही था तो
अपनों के प्यार का
दाग़ लग जाता मन पर
यदि होना ही था तो
इंसानियत का गहरा घाव
हो जाता तन पर