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घास उग आई है उन क़ब्रों पर, जिन्हें हमने भुला दिया / अलेक्सान्दर ब्लोक / अनिल जनविजय

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सिर्गेय सलअव्योफ़ के लिए

घास उग आई है उन क़ब्रों पर, जिन्हें हमने भुला दिया
हम भूल चुके अपना इतिहास, शब्दों को भी धुँधला दिया
          अब चहुँ ओर सन्नाटा छाया है ...

मृत्यु विदा हो चुकी है वो, पूरी तरह से जल चुकी है जो
पर तुम जीवित नहीं हो क्या ? अमल-धवल, श्वेत-शुभ्रा ?
          हृदय तुम्हारा – ऋतुराज कुसुमा ?

सिर्फ़ सांस वही लेते हैं, रहते जो क़ब्रों के नीचे,
कभी कोमल गीत रचे थे, मैंने इनके आगे-पीछे
हो जाए शायद कभी तुमसे यहाँ समागम ...

मेरी वायवीय छवि में जहाँ पहली बार तुमने
साँस-सा कुछ फूँका था, जीवन लगा था खुबने
क़ब्रों पर उगी उस हरी घास के पार ...

1 अप्रैल 1903
          
मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय

लीजिए अब मूल रूसी में वही कविता पढ़िए
                               Александр Блок
             У забытых могил пробивалась трава…

                                        С. Соловьеву

У забытых могил пробивалась трава.
Мы забыли вчера… И забыли слова…
     И настала кругом тишина…

Этой смертью отшедших, сгоревших дотла,
Разве Ты не жива? Разве Ты не светла?
     Разве сердце Твое – не весна?

Только здесь и дышать, у подножья могил,
Где когда-то я нежные песни сложил
     О свиданьи, быть может, с Тобой…

Где впервые в мои восковые черты
Отдаленною жизнью повеяла Ты,
     Пробиваясь могильной травой…

1 апреля 1903 г.