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घास / विजेन्द्र

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घास घास घास
जो उगती है समूह-गुच्छों में
मेरें आस-पास चारों तरफ
वह उगती है
बिन पानी- बिन बरसात
ओ नृषंस पषु
उसे खूँद मत
उसके पत्तों को छुकर देख
तुझे लगेगा
वह कितनी ताज़ा है
कितनी ज़िंदा-उगने को बेचनै
वह मेेरी आँखों रोषनी है
रंगो का खून है
जिस्म की ताकत
असंख्य भुजाओ का बल है
हर बार मैंने क्रूरता से
उसकी जड़ों को मारना चाहा है
सदियों से उसे
अपने खुरों से खूँदा है
वह मेरी नहीं
पौंड़ती रही धरती में भीतर-ही-भीतर
कवि हूँ जनतंत्र का
उसकी ताकत का
मुझे है एहसास
क्यों भय खाती है दुनिया उसके उगान से
उसके फुटन से
क्यों अनदेखा करती हैं
उसके ओस-भीगे पत्तों को
ओ मेरे युग-महाकवि
वह ज़िदा है तेरे ‘नये पत्तों’ में
झींगुर के ‘बोल’ में
महगू की ‘उड़ी खबर’ में
‘खून की होलीे’ में
वों ज़िंदा है
क्यों वो इसी तरह रौंदे जाने को उगी है
नहीं, कवि नहीं
तू उसे अपने छंदो में ढाल
लय में पिरे
उसे करोड़ो की तजस् वाणी बना
ये मेरा प्रचुर जीवन आवेगमय
मेरी अबाध धड़कनें
मुक्त हो जीने को
एक सुंदर जीवन
लड़ रहे हैं जो स्याह सदियों से
धीरे-धीरे साहस का वृक्ष सूख रहा है
जीवन अंधड़ थपेड़ों से
इतना अट गया है
दूसरों के लिए जैसे
न अब समय है, न रूदन।
फसलों को अपनी रगों में पीने वाले
ओ सूर्य-कवि
जीवन की तीखी ललक
अग्नि-चक्र से उछटती लपट है
बिना तुझे बताए पिये लेता हूँ।

21.08.2007