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घिरते नहीं श्याम घन / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
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बाँझ कामनाओं को ढोती निदिया रही कुँवारी रे।
समा गयीं आँखों में कितनी रातें कारी-कारी रे!
जाने कब अनजाने उग कर चन्दा चमक गया झिलमिल
मन मन्दिर के अँधियारे में छिपी हुई उजियारी रे!
जब से मिली भक्ति मधुबन में मन मोहन से एकाकी
उभरी तब से सुमति राधिका रहती है मतवारी रे!
घिरते नहीं श्यामघन आकर अम्बर सूना-सूना है
मुरझाई-सी रहती मन के सावन की फुलवारी रे!
कैसे कहूँ-कहूँ मैं किससे सघन हूई लाचारी रे।
जीता जीता रहा सदा वह मैं तो हारी-हारी रे!
दर्दों के सागर उमड़े हैं आशा की धाराओं से
जीवन की हर धार हो रही हरपल खारी-खारी रे!