भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घिरे अर्जुन अकेले / शीला पाण्डेय
Kavita Kosh से
घन हवाएँ चक्रवाती में
घिरे अर्जुन अकेले
लड़ रहे तुमसे तुम्हारे
विष बुझाये तीर ले ले
सामने सेना अपरिमित
है खड़ी तलवार ताने,
आँख की चिंगारियों में
घृणा का अंगार साने
हे धनुर्धर मौन तोड़ो
भाव को पीछे धकेले॥
कौन तेरा, कौन मेरा
सोचने का क्षण नहीं है
युद्ध से भयभीत होने का
तुम्हारा प्रण नहीं है
वीर तुम सन्नद्ध हो लो!
आ रहें रिपुओं के रेले।
यह तुम्हारी रीति है
हों लक्ष्य पर ही सधी-आँखें
बीच में आने न पाएँ
वृक्ष-पत्ते और शाखें
बढ़ो आगे व्यूह तोड़ो!
रौंद दो पापों के मेले॥
धर्म की स्थापना
करनी तुम्हें ही है यहाँ पर
द्रौपदी की पीर भी
हरनी तुम्हें ही है यहाँ पर
पार्थ! लो ब्रम्हास्त्र कर में
भस्म कर दो अरि झमेले॥