भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घिर अइलय मेघ / मुनेश्वर ‘शमन’
Kavita Kosh से
बीत गेलय लहकाल दिन,
घिर अइलय मेघ रे।
थिरक-थिरक नाचय मन,
टुसअइलय नेह रे।
पुरबा सहमल सिहकल,
बगिया महमह महकल।
लतर सब झूम रहल,
मुस्कइलय रेत रे।
बरसय रिमझिम फुहार,
गूँजय घर-घर मल्हार।
हरसल वन फुलवारी,
ठिठकल हइ बेंत रे।
भौरन कइलक पुकार,
कलियन के जगल प्यार।
लौट सकल अब तक नञ,
पिया अपन गेह रे।
जियरा के भेद झाँझ,
खोलय होवइत साँझ।
मन प्यासल बरखा में,
भींज रहल देह रे।