घिर रही है शाम / राकेश रंजन
ढल रहा है सूर्य
घिर रही है शाम
पर ठहरो
कुछ कहना है तुमसे!
बेचैन पंछी चीखते चकरा रहे हैं
धूसर आकाश में कि अब तक
घास काटने गई किशोरियाँ
नही लौटीं
मैदानों से बच्चे, ख़ानों से मजूर
समुद्रों से मछेरे नहीं लौटे
सुबह का निकला हुआ कितना कुछ
शाम तक नहीं लौटा घर!
सिहर रही हैं हवाएँ
काँप रही हैं पत्तियाँ
फूलों के जीवन पर झड़ रहा है
काला पराग!
नदियों तक जाने वाले रास्ते
और जंगलों तक जाने वाले रास्ते
समुद्रों तक जाने वाले रास्ते
और गुफ़ाओं तक जाने वाले रास्ते
सब एक से लग रहे हैं
हमारे साथ जो चल रहे हैं
वे नर हैं की नरभक्षी
कुछ नहीं सूझता!
घर और रास्ते
लोग और आवाज़ें
इतिहास और कथाएँ और स्वप्न...
सब धूसर हो रहे हैं!
धूसर हो रहा है
दुपहर-भर चांदी के महाकाय फूल-सा
खिला हुआ स्तूप!
शाम गहराएगी, होगी रात
रात चांद नहीं उगेगा
पर कोई नहीं देखेगा
कि चांद नहीं उगा है
कोई नहीं सोचेगा
कि चांद नहीं उगा है
कोई नहीं कहेगा
कि चांद नहीं उगा है!
ढल रहा है सूर्य
घिर रही है शाम
पर ठहरो
कुछ कहना है तुमसे!
सुन लो
तो जाना!
जाना खतरनाक है अन्धेरे में
लौटना तो और भी
फिर भी मैं कहता हूँ--
चीखूँ जब
अन्धकार के खिलाफ़ उठकर पुकारूँ
तो आना!