घिर रहे हैं गगन श्याम घन बावरे / रंजना वर्मा
घिर रहे हैं गगन श्याम घन बावरे सांवरी छवि नयन में समाती रहूँ।
गर्जना मेघ की है डराने लगी बिजलियों से स्वयं को बचाती रहूँ॥
मुक्त होकर मयूरों ने नर्तन किया व्यग्र चातक रटे पी कहाँ पी कहाँ
आम्र के पल्लवों में छिपी कोकिला किस तरह मैं पिया को बुलाती रहूँ॥
हों सरस झूल डोलीं सुमन डालियाँ मुक्त भ्रमरों की गुनगुन लगी गूँजने
तितलियों के परों पर टिकी बूँद जो मैं उसे मोतियों-सा बनाती रहूँ॥
बारजे पर कबूतर गुटरगूँ करें पंछियों को मिला नीड़ का आसरा
भीगते कपि करें दाँत वादन उधर मैं उन्हें देखकर मुस्कुराती रहूँ॥
शाटिका है धरा की हरी हो गयी शुष्क जो भूमि थी जल भरी हो गयी
ताप शीतल हुआ मन प्रफुल्लित मगन गीत मैं प्रीति के गुनगुनाती रहूँ॥
एक दिन के लिये एक घड़ी के लिये एक पल के लिये तुम अगर मिल लिये
उन पलों को मैं दूल्हा बना कर पिया नित हृदय सेज अपनी सुलाती रहूँ॥
तुम कभी तो मिलो तुम कहीं तो मिलो अब विनय है यही तुम मिलो तो सही
मन भवन में तुम्हें रोक लूँगी सजन ईश से रात दिन यह मनाती रहूँ॥