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घिसे हुए चेहरों पर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
खिड़की-दरवाज़ों पर
पर्दे टंगवाते
बीत गए रिश्ते सब - टूट गए नाते
भूल गए सूरज को
मुँह-ढँके झरोखे
बंद हुए सपनों के
रास्ते अनोखे
सारे ही आसपास हुए बही-खाते
अपनी दीवारों के
घेरे में दुबके
चले गए
सगे मीत-संबंधी चुपके
सूनी चौपालें हैं - मौन हैं अहाते
शहराते आँगन की
खंडित दहलीज़ें
रिश्तों को बेच
सभी ले आये चीज़ें
घिसे हुए चेहरों पर कोहरे गहराते