भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घी के दिये जलाओ / रिंकी सिंह 'साहिबा'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घी के दिये जलाओ, श्री राम आ रहे हैं,
उत्सव की धुन बजाओ, श्री राम आ रहे हैं,
आनंद गीत गाओ, श्री राम आ रहे हैं।

पुष्पक विमान का भी गौरव बढ़ा हुआ है,
सदभाग्य से जो उसने पद राम का छुआ है,
हंसती हुई दिशाएं, चंचल हुई हवाएं,
विह्वल है सृष्टि सारी, उमड़ी हैं भावनाएं,
अम्बर ख़ुशी से झूमा, धरती चहक उठी है,
कुछ तुम भी गुनगुनाओ, श्री राम आ रहे हैं।

कलियों से भर ही देती साकेत दिव्य नगरी,
चख चख के बेर लाती होती जो मातु शबरी,
कंगूरे सब महल के फूलों से वो सजाती,
पत्तों से आम के वो तोरण नए बनाती,
क्षण भर की देर है बस राहें बुहार कर अब,
पलकों को तुम बिछाओ, श्री राम आ रहे हैं।

दीपों की पंक्ति बांधो सरयू की हर लहर पर,
सूरज को ला के रख दो महलों के हर शिखर पर,
सोयेगी केश खोले मावस की रात काली,
आकाश चंद्रमा से, तारों से होगा ख़ाली,
कह दो ये जुगनुओं से उड़कर चमक बिखेरें,
कण कण को जगमगाओ, श्री राम आ रहे हैं।

देखी छटा निराली फूलों के मेघ बरसे,
दर्शन को जिसके युग युग तक देवता भी तरसे,
सौमित्र जैसे भैया, हैं साथ सीता मईया,
निज धाम आ रहे हैं इस सृष्टि के रचईया,
अनुपम ये दृश्य जीवन में फिर नहीं मिलेगा,
छवि मन में बसाओ, श्री राम आ रहे हैं।