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घुँघरू की तरह बजता ही रहा हूँ / रविन्द्र जैन
Kavita Kosh से
घुँघरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं
कभी इस पग में कभी उस पग में बँधता ही रहा हूँ मैं
घुँघरू की तरह ...
कभी टूट गया कभी तोड़ा गया
सौ बार मुझे फिर जोड़ा गया
यूँ ही टूट-टूट के, फिर जुट-जुट के
बजता ही रहा हूँ मैं
घुँघरू की तरह ...
मैं करता रहा औरों की कही
मेरे मन की ये बात मन ही में रही
है ये कैसा गिला जिसने जो कहा
करता ही रहा हूँ मैं
घुँघरू की तरह ...
अपनों में रहे या ग़ैरों में
घुँघरू की जगह तो है पैरों में
कभी मन्दिर में कभी महफ़िल में
सजता ही रहा हूँ मैं
घुँघरू की तरह...