भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घुघूती का बासना / शिरीष कुमार मौर्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नायाब रिश्ते कमाए
और
ख़राब कविताएँ लिखीं
गौरव के बीच

अचानक शर्मिंदगी मिली
पाले से झुलसी दूब पर
ठिठकी हुई

ऋतु मिली
शिशिर की
भोर हुई जीवन की
शीत में लिपटी

कोहरे के पार जो दिखाई दी
धुँधली-सी
मेरी आत्मा थी
जो आवाज़ थी मेरे पीछे
बुदबुदाहट सरीख़ी

रितुरैण था
किसी और ऋतु में
जिसे किसी ने गाया था
बहुत टूट कर
बिखर कर

वह मेरे पीछे आया था
अब भी सुनाई देता है
मद्घम
जैसे बाँज की डाल पर
घुघूती का बासना