घुटने / सरस दरबारी
जब पहली बार चला था वह-
घुटने घुटने-
एक आज़ादी का अनुभव किया था उसने-
पालने की क़ैद से निकलकर-
ठन्डे फर्श का स्पर्श!
और माँ बाबू के दिल में उठती-
ख़ुशी की हिलोरों का स्पर्श!
कितना सुखद था सब-
फिर दौड़ते भागते
गिरते पड़ते-
चुटहिल घुटनों पर
माँ का वात्सल्य भरा स्पर्श
सारी पीड़ा हर लेता
माँ के पास समय का अभाव अक्सर रहता
घरों का झूठा बासन जो निबटाना था-
घुटनों का टूटना-
माँ का कुछ समय उसकी झोली में डाल जाता!
फिर माँ चल बसी-
उन्ही घुटनों में सर छिपा
घंटों रोया था वह!
अब तो उन्ही का सहारा था-
शीत की ठिठुरती रातों में
इन्हीं घुटनों से पेट ढक सोया था-
और भींच उन्हें अपनी आँतों से
बिताईं थीं अनगिनत भूख से कुलबुलाती रातें
बोझा ढोते हुए
इन्हीं घुटनों ने अक्सर
कन्धों को आश्वस्त किया था!
पर आज-
उम्र के आखिरी पड़ाव पर
इन्हीं टीसते घुटनों को
जीवन का अभिशाप बताता है वह!!