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घुटन से भरी-भरी / विजय किशोर मानव

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घुटन से भरी-भरी
ये सारी संज्ञाएँ
मेज पर पड़ी पिन तक
करती हैं शंकाएँ

फाइल के गत्ते पर
अवर्तन मन का
फाड़ रहा अखबारी कागज जीवन का
उलझन के रेतीले पानी पर
तैर रही साधन की
बोझ लदी नौकाएँ

फर्श पर पड़े हुए
रद्दी से हम
धूल भरे वातायन से लेते दम
नत्थी-सा हो गया अहम अपना
मिलती हैं चुंबन से
कराहती शिराएँ

हवा-हवा हो जाता
आँखों का गीलापन
जीने में कुछ ऐसे शामिल है विज्ञापन
दलदल में फँसे हुए पाँव हैं
मुँह चिढा-चिढा जाती
सिरफिरी हवाएँ