घुटन / साधना जोशी
घुट एक मानसिक चुमन सी व्यथा की
जहर का घूंट जीवन के सफर का
ज्वार भाटा का निषा भावों के सागर में,
विडम्बना बन जाती है दायित्वों की महफिल में
निहत्था बना देती है संबन्धों को जोड़ कर,
बन्धनों को तोड़ने का दम, मुँह खोलना चाहता है
किन्तु दवाने की कोषिषे होती है घुटन बनाकर
दुविधा से द्वार बन्द हो जाते हैं
धैर्य का ताला लगा दिया जाता है
हृदय का बोझ
सह लिया जाता घुटन बना कर ।
घुटन की चादर हमारे लिए
जाल बन गई है उलझ गये हैं हम
महल बन कर,
घुटन की चुभन को हर कोई सह रहा है
नाव को फिर भी चला रहा है दायित्वों की ।
मस्तिक संन्तुलन कभी बिगड़ जायें तो
उससे पहले का घुटन की दीवार को तोड़ दे हम
सरलता सहजता से जिन्दगी डह न जायें
करीनेें से ईटें निकाली जाय घुटन की दीवार की
कि छत भी रह जाये किन्तु दीवारे भी बदल जाये ।