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घुटी—घुटी—सी वो बोझल फ़ज़ा न रास आई / सुरेश चन्द्र शौक़

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घुटी—घुटी—सी वो बोझल फ़ज़ा न रास आई

हमें तो शह्र की आबो—हवा न रास आई


भटकते फिरते हैं अब हम भी दश्तो—सहरा में

हमें भी कूए—वफ़ा की फ़ज़ा न रास आई


हमारे ज़ख्म का कोई इलाज हो न सका

हमारे दर्द को कोई दवा न रास आई


हमेशा प्यार किया हमने ज़िन्दगी ! तुझ को

अगर्चे कोई भी तेरी अदा न रास आई


अज़ल से ख़ार ही पहने हों जिस ने ‘शौक़’! उसे

अजीब क्या जो गुलों की क़बा न रास आई.


अज़ल=अनादिकाल; ख़ार=काँटे;क़बा=पोशाक