भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घुरियो नैं एैलै कंत सखी हे / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
Kavita Kosh से
घुरियो नैं एैलै कंत सखी हे
घुरियो नै ऐलै कंत
कैन्होॅ कैन्होॅ लागै फागुन
देहोॅ में जेना लागै आगिन
केना होतैं तोहीं बतावोॅ
ई विरहा के अंत सखी हे
घुरियो नै ऐलैं कंत सखी हे
घुरियो नै ऐलै कंत
बरसी बरसी गेलै रंग अबीरा
बाट जोहत मन भेलै अधीरा
बोली बोली बुलावै हमरा
पपीहा, पिक, बसंत सिखी हे
घुरियो नै ऐलै कंत
घुरियो नै ऐलै कंत सखी हे
घुरियो नै ऐलै कंत
उड़तेॅ देखौं गगन जब धूरा
लागै, मन होतै आबेॅ पूरा
नागिन फन फूंफकारै क्षण क्षण
थकलौ ताकीं पंथ सखी हे
घुरियो नै ऐलै कंत
घुरियो नै ऐलै कंत सखी हे
घुरियो नै ऐलै कंत
मन-बगिया गूंजै जब भौरा
थिरकी थिरकी नाँचै मन मोरा
आशा में राखी मन जीयै छी
करवै केना हंत सखी हे
घुरियो नै ऐलै कंत
घुरियो नै ऐलै कंत सखी हे
घुरियो नै ऐलै कंत