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घुरु-घुरुर-घुरुर चकिया ब्वालै / बोली बानी / जगदीश पीयूष
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घुरु-घुरुर-घुरुर चकिया ब्वालै
बूढ़ी ककियनि का जिउ ड्वालै
पिसनहरी पिसना पीसति है
हरहन कै घंटी बाजि रही
कोउ तड़के बासन माँजि रही
अपनी मेहनति घर का दाना
नित पीसै लल्ली मनमाना
वा गावै सीताहरन
मोर जिउ टीसति है
सविता की किरनैं फूटि रहीं
कुंता-छंगो सुखु लूटि रहीं
तिकड़म की चालन ते अजान
बिनु ब्याही बिटिया है जवान
सुख-दुख मा घरहेम बैठि
आँखि वा मीसति है