भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घूरती हुई आँखें / अजित कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात थी अँधेरी और
भूतों की टोली
पीपल के तले और
बेलों के झुर्मुट में
देती थी फेरी ।

‘भूतों से क्या डरना ।
आखिर तो हम सबको मरना है,
और भला क्या करना ।
हम जो कहलाते हैं भारत के पूत ।
-हम भी तो होयेंगे ऐसे ही भूत ।‘
इसी तरह सोच-सोच
हिम्मत बँधाई मैंने काँपते-से मन को ।

और तभी कमरे के किसी एक कोने में
दिखीं मुझे बेधती-सी चमकदार आँखें ।
काँपता-सा मन हुआ जैसे निस्पन्द ।
डर के मारे मैंने आँखें कीं बद ।

बीत गये कई सल …
लेकिन अब भि तो मेरा है वही हाल ।
एक उसी घटना को पाता मक़िं नहीं भूल ।
याद मुझे आती :
ज्यों आते थे याद वर्ड्सवर्थ को डैफ़ोडिल फूल ।
दीखतीं अँधेरे में हैं मुझको अब भी
चमकीली, तेज़, बेधतीं, सम्मोहन करतीं-
बिल्ली की दो आँखें …

अन्धकार पाप है । और
अज्ञान भी ।
लेकिन जिसको बेधें बिल्ली की आँखें-
रहकर अँधेरे में भी, प्प्प क्या करेगा वह-
घूरती हुई आँखों की स्थिति का ज्ञानी ।