भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घूस का घोड़ा / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
स्वधर्म हो गया है वेतन का बचाना
ऊपर की आमदनी का पैसा खाना
ज्यादा से ज्यादा नाजायज कमाना
तरह और तरकीब से पकड़ में न आना
क्या खूब है जमाना।
बे लगाम दौड़ता है घूस का घोड़ा
रौंदने से इसने किसी को नहीं छोड़ा
बेकार हो गया है कानून का कोड़ा
रोक नहीं सकता इसे कोई रोड़ा
दम इसने कब तोड़ा।
रचनाकाल: १५-०४-१९६९