घृणा और ख़ामोशी / रूपम मिश्र
कुछ पुरानी घृणाओं को पैरों तले दबाकर
मैं दोनों हाथ से नई घृणाओ को पकड़ रही थी
इस घृणा का रंग इतना चितकबरा था कि मैं ठीक-ठीक आश्वस्त नहीं थी कि कौन सा रंग झूठ का है, कौन सच का
और स्वर भी इतने उलझे थे कि मैं कब मध्यम से सप्तम तक पहुँच जाती, पता नहीं चलता
घृणा की इस नई धुन को मैं चीख़-चीख़ कर गा रही थी
कमाल की बात ये थी कि इन्हीं घृणाओ के जनक मेरे गाने पर तालियाँ भी पीट रहे थे
मेरी अतिरेक से पीड़ित चिल्लाहट में स्वर मिला रहे थे
मुझे अपने जवार की नई महिला विधायक बिमला देवी
का मंच याद आ जाता जिस पर चढ़ कर सारे लम्पटज़द खड़े हो जाते
और वे कहते बिमला देवी तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं !
मैं अचानक ख़ामोश हो गई
आखिर वो कौन लोग थे जिनकी मैं बात कर रही थी !