घृणा का गान / अज्ञेय
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
तुम, जो भाई को अछूत कह वस्त्र बचा कर भागे,
तुम, जो बहिनें छोड़ बिलखती, बढ़े जा रहे आगे!
रुक कर उत्तर दो, मेरा है अप्रतिहत आह्वान-
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
तुम, जो बड़े-बड़े गद्दों पर ऊँची दूकानों में,
उन्हें कोसते हो जो भूखे मरते हैं खानों में,
तुम, जो रक्त चूस ठठरी को देते हो जल-दान-
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
तुम, जो महलों में बैठे दे सकते हो आदेश,
'मरने दो बच्चे, ले आओ खींच पकड़ कर केश!'
नहीं देख सकते निर्धन के घर दो मुट्ठी धान-
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
तुम, जो पा कर शक्ति कलम में हर लेने की प्राण-
'नि:शक्तों' की हत्या में कर सकते हो अभिमान!
जिनका मत है, 'नीच मरें, दृढ़ रहे हमारा स्थान'-
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
तुम, जो मन्दिर में वेदी पर डाल रहे हो फूल,
और इधर कहते जाते हो, 'जीवन क्या है? धूल!'
तुम, जिस की लोलुपता ने ही धूल किया उद्यान-
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
तुम, सत्ताधारी, मानवता के शव पर आसीन,
जीवन के चिर-रिपु, विकास के प्रतिद्वन्द्वी प्राचीन,
तुम, श्मशान के देव! सुनो यह रण-भेरी की तान-
आज तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
लाहौर, 30 जनवरी, 1935