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घोड़े, कुर्सी और हम / सरोज कुमार
Kavita Kosh से
पहले जो हुआ करते थे अश्वारोही
घास की रोटियाँ खाते हुए
हथेली पर प्राण रखे
युद्ध को जाते हुए
युद्ध से आते हुए,
वे इन दिनों बन गए हैं समारोही!
लंच, डिनर खाते हुए
इठलाते इतराते हुए
इधर से आते हुए
उधर को जाते हुए!
अश्वारोहियों के हाथों में
होती थी लगाम,
समारोहियों के हाथों में
होता है निमंत्रण!
तब घोड़ों पर बैठकर
भेरियाँ बजाते थे
अब कुर्सियों पर पसरकर
तालियाँ बजाते हैं!
अश्वारोही हों या समारोही
इन्हीं के तहलके
इन्हीं का इतिहास है
शेष संसार सकल
दासानुदास है!
होने की अदा में
बस ये ही होते हैं
घोडा हो, कुर्सी हो या हम
इन्हें ढोते हैं!