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घोड़े / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
जहां पर आंखें नहीं पहुंच पायेंगी
घोड़े वहां तक हमें ले जाएंगे
इन पर हम सवार
लेकिन लगाम इसके मालिक के पास
उसी की ठोकर की दिशा में ये चलते हैं
जब ऊंचाई आए तो थोड़ा आगे की तरफ झुक जाओ
जब ढलान पीछे की तरफ
इसी तरह से सामंजस्य बनाये रखना होता है इनके साथ
और देखते-देखते कितनी सारी दूरियां तय कर ली हैं हमने
सामने नदी है और घोड़े को लगी है प्यास
थोड़ी देर हम यहीं रुक जाते हैं
धीरे-धीरे टहलते हैं
तब तक यह घोड़ा करेगा आराम
और उसके चुस्त होते ही यात्रा शुरू
घोड़े के मालिक की जिद है
वह हमें छोड़ेगा नहीं, दिखलायेगा यहां की सारी चीजें
हम थके हुए होने पर भी कर देते हैं आत्मसमर्पण,
उसके आगे
और वापस लौटने पर
घोड़े के शरीर की गंध तक रह जाती है हमारे कपड़ों पर।