घोड़ों का अर्ज़ीनामा / प्रेम शर्मा
हुज़ुरे आला,
पेशे खिदमत है
दरबारे आम में
हमारा यह अर्ज़ीनामा --
कि हम थे कभी
जंगल के आज़ाद बछेरे ।
क़िस्मत की मार
कि एक दिन
काफ़िले का सौदागर
हमें जंगल से पकड़ लाया ।
उसके तबेले में
बँधे पाँव
कुछ दिन
हम रहे बेहद उदास ।
रह-रह कर
याद आए हमें
नदी-नाले
जंगल-टीले-पहाड़
रंगीन महकती वादियाँ,
हरे-भरे खेत
औ' मैदान
वे सुनहरे दिन
वे रुपहली रातें
जब मौज़-ओ-मस्ती में
बेफ़िक्र हम
मीलों निकल जाते थे,
जब
धरती और आसमान के बीच
ज़िन्दगी हमारी
आज़ादी का
दूसरा नाम थी ।
तो हुज़ुर,
क़ैदे आज़ादी के एहसास से
कुछ कम जो हुई
आँखों की नमी
तो भूख-प्यास जगी ।
जो भूख-प्यास जगी
तो मजबूरन
हमने
अपना आब-ओ-दाना कुबूल किया ।
फिर
सधाया गया हमें
सौदागरी अन्दाज़ में,
सिखाई गईं चालें
हुनर और करतब,
घोड़ों की जमात में
अब
हम थे नस्ल-ए-अव्वल
बेहतरीन जाँबाज़ घोड़े ।
फिर
एक दिन
किया गया पेश
हमेम
निज़ाम-ए-शाही के दरबार मे ।
पुरानी मिस्लों में
दर्ज़ हो शायद
हमारी वह दास्तान
कि जब
सूरज गुरूब होने तक
बीस शाही घुड़सवार
लौटे थे नाकाम
हमें पकड़ पाने में
तो अगले रोज़
आला-हुज़ूर ने
सौ दीनार के बदले
हमें ख़रीदा था,
थपथपाई थी
हमारी पीठ ।
उसके बाद
तो हुज़ूर
राह-ए-रंगत ही
बदल गई
हमारी ज़िन्दगी की ।
अब हम
आला-हुज़ूर की
सवारी के
ख़ासुल-ख़ास
घोड़े थे ।
सैर हो कि शिकार
या कि मैदान-ए-जंग,
दिल-ओ-जान से
अन्जाम दी हमने
अपनी हर खिदमत ।
आला-हुज़ूर का
एक इशारा पाते ही
हम
दुश्मन के
तीर-तलवारों
तोप-बन्दूकों
बरछी-भालों की
परवाह किए बिना
आग और ख़ून के
दरिया को चीरते हुए
साफ़-बेबाक
निकल जाते थे ।
गुस्ताखी मुआफ़
आला-हुज़ूर के
आसमानी इरादों को
कामयाबी
और फ़तह का
सेहरा पहनाने में
हमारा भी
एक किरदार था
तवारीख़ के
सुनहरे हाशियों से अलग ।
हुज़ूर
कभी-कभी हमें
याद आते हैं
वे शाही जश्न-ओ-जुलूस
लाव-लश्कर
राव-राजे,
शहज़ादे
फ़र्जी और प्यादे,
राग-रंग की
वे महफ़िलें
वो इन्दरसभा
वो जलवागाह
कि जिस पर
फ़रिश्ते भी करें रश्क़।
क्या ज़माना था हुज़ूर
क्या रातबदाना था।
हुज़ूर
दौर-ए-जहाँ में
देखा है ज़माना हमे
वतनपरस्तों की
सरफ़रोशी का ।
फिर
देखा है मंज़र
उस
सियासी आज़ादी का
जो
बँटवारे की क़ीमत पर
सदियों पुराने भाईचारे
और इन्सानियत के
ख़ून में नहाकर
आई थी ।
फिर
देखी है शहादत
उस बूढ़े फ़कीर की
जिसके सीने को
चाक कर गई थीं
तीन गोलियाँ
मौज़ूद है जो
हमारे
कौमी अजायबघर में ।
हुज़ूर
सुनी हैं तकरीरें
हमने
साल-दर-साल
रहनुमाओं की,
देखे हैं ख़्वाब
अमनपसन्दी
और ख़ुशहाली के
एक जलावतन
बादशाह की
लाल महराबों से ।
हुज़ूर
अस्तबल से ख़ारिज
हादसे-दर-हादसे
ज़िन्दगी हमारी
कुछ इस तर गुज़री
कि फ़िलवक़्त हम
मीरगंज की रेहड़ी में
जुते घोड़े हैं
ज़िन्दगी से बेज़ार
पीठ पर
चाबुक की मार
जिन्स और असबाब
सवारियाँ बेहिसाब,
भगम-भाग
सड़ाप !
सड़ाप !!
हुज़ूर
ज़िन्दगी औ' ज़िल्लत में
जुर्म औ' सियासत में,
अब
ज़्यादा फ़र्क
नहीं रहा ।
आख़िरत
यह इल्तजा है हमारी
कि हमें
गोली से
उड़ा दिया जाए
ताकि हमारी
जवान होती नस्लें
देख सकें हश्र
हमारी
बिकी हुई आज़ादी का,
खिदमत-गुज़ारी का ।
हुज़ूर
बाद सुपुर्द-ए-ख़ाक
लिखवा दिया जाए
एक पत्थर पर
दफ़्न हैं यहाँ
वे घोड़े
जो हवा थे
आसमान थे
हयात-ए-दरिया की
रवानी में
मौत ज़िन्दगी का
मुकाम सही
ज़िन्दगी
मौत की ग़ुलाम नहीं।