भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़ / सूफ़ी तबस्सुम
Kavita Kosh से
ज़िंदगी है तो कोई बात नहीं है ऐ दोस्त
ज़िंदगी है तो बदल जाएँगे ये लैल ओ नहार
ये शब ओ रोज़, मह ओ साल गुज़र जाएँगे
हम से बे-मेहर ज़माने की नज़र के अतवार
आज बिगड़े हैं तो इक रोज़ सँवार जाएँगे
फ़ासलों मरहलों राहों की जुदाई क्या है
दिल मिले हैं तो निगाहों की जुदाई क्या है
कुल्फ़त-ए-ज़ीस्त से इंसान परेशाँ ही सही
ज़ीस्त आशोब-ए-ग़म-ए-मर्ग का तूफ़ाँ ही सही
मिल ही जाता है सफ़ीनों को किनारा आख़िर
ज़िंदगी ढूँढ ही लेती है सहारा आखिर
इक न इक रोज़ शब-ए-ग़म की सहर भी होगी
ज़िंदगी है तो मसर्रत से बसर भी होगी
ज़िंदगी है तो कोई बात नहीं है ऐ दोस्त !