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चकई की चकदुम / प्रदीप शुक्ल
Kavita Kosh से
खूब झमाझम बरसे पानी
आ भीगें हम तुम
भीग रही
आँगन में डोरी
बूँदें उससे लटकीं
ऐसा लगता मारे डर के
साँसें उनकी अटकीं
एक एक कर कूद रही हैं
पानी में छुम छुम
बनते हैं
गायब हो जाते
पानी के ये बुल्ले
आसमान से बरस रहे हों
जैसे पैसे खुल्ले
आओ इसका पता करें
ये कहाँ हो रहे गुम?
लो चाची
बाज़ार से आईं
ले सब्ज़ी की थैली
और चप्पलों ने कर दी है
उनकी साड़ी मैली
नीचे बह कर लगा नाक पर
माथे का कुमकुम
पत्तों के
नीचे बैठी है
छोटी सी गौरैया
मोर नाचता है मेड़ों पर
करके ताता थैया
ताल किनारे मेढक बोला
चकई की चकदुम.