चकाचौंध पंडालों की / सीमा अग्रवाल
चकाचौंध पंडालों की इस बरस त्याग कर
नमो नमो माँ अम्बे अब की
नौ राते कुछ अलग मनाओ
उस खोरी को चलो
जहाँ सीला है क्षण-क्षण
सीली सीली आँखें हैं
सीले से दर्पण
अंधियारा है गगन जहाँ
धरती अंधियारी
हंसते हैं आभाव जहाँ
पर पारी-पारी
निरंकार है जोत तुम्हारी
यदि सच में माँ
अंधियारी खुशियों में भी
कुछ रोज़ बिताओ
जहाँ पतीली में पकती हैं
सिर्फ करछियाँ
सांस सांस पर नाच रहीं हैं
जहाँ पसलियाँ
स्वप्न जहाँ पर खुद ही खुद से
ऊब चुके हैं
आँखों के काले घेरों में
डूब चुके हैं
दुख हरनी, सुख करनी हो तुम
यदि सच में माँ
इन गलियों में हुनर ज़रा
अपना दिखलाओ
क्यों बेटी जीवन से पहले
मर जाती हैं
क्यों सड़कों की आँखों से वह
घबराती है
जयकारों का मोह त्याग
स्वीकारो सच को
पहचानो स्वांगों के
बहुरंगी लालच को
असुरमर्दिनी, विजया हो तुम
यदि सच में माँ
शातिर परम्पराओं में
जी कर बतलाओ