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चक्कर / सुमति बूधन
Kavita Kosh से
बुझे चूल्हे के उठते हुए धुओं,
जूठ बरतनों,
मेज़ पर छितरे हुए कागज़ों,
बिस्तर पर सिकड़े हुए तकियों,
फ़र्श पर पसरी हुई धूलों,
तथा
बच्चे के रोते और फैले हुए
हाथों को छोड़कर,
जब मैं दिन की सीढ़ी पर चढ़ती हूँ,
तो लगता है
सूरज का कोई टुकड़ा टूटकर
मेरे सामने अंधेरा बिखेर देता है
और......................
इस अंधेरे से पस्त होकर
जब मैं शाम को
घर की दहलिज़ पर
पैर रखती हूँ तो..............
मेरे कलेजे का वह हिस्सा
जो हर रोज़
मैं काटकर रख जाती हूँ,
पिघल गया होता है।