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चक्रव्यूह में स्त्री / राजेश्वर वशिष्ठ

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वे स्त्रियाँ हैं
उन्होंने अपने आँसुओं से बहुत सारी
दुखान्त कविताएँ लिखीं हैं।

वे कविताएँ नहीं
उनकी उस गुलाबी नोटबुक के पन्नों में
दबाकर रखीं गईं तितलियाँ
और सूखे हुए फूल हैं
जो उन की स्मृतियों में
विषाद बन कर
अभी तक चिपके हैं
और धीरे-धीरे पी रहे हैं
सपनों का ख़ून
किसी जोंक की तरह ।

यह इतिहास है
कि उन्हें छलते ही रहे हैं पुरुष !

पिता बन कर
सामाजिक प्रतिष्ठा बचाने के उपक्रम में
संस्कारों का हवाला देकर ।

प्रेमी बन कर
कँवारी बहनों और माँ-बाप की
ख़ुशी की भीख माँग कर ।

पति बन कर
अपने दायित्व रहित व्यवहार
और हीनता बोध के चलते ।

अब सब कुछ हार कर
वे समाधिस्थ बैठी हैं ऊँचे पहाड़ पर
किसी पौराणिक देवी की तरह
उन्हें लगता है
बस एक यही विकल्प है स्त्री के पास ।

मैं उनसे असहमत हूँ
और असहमत हूँ
सारी दुनिया की स्त्रियों से
जो सोचती हैं
कि हमारी सामाजिक मान्यताएं ही
बचा रही हैं मनुष्यों को पशु होने से ।

क्या पशुओं के समाज में
आपने देखा है
इस तरह का शोषण ?

वे क्यों भूल जाती हैं
स्त्री के सोच में
यह संस्कार हम पुरुषों ने ही भरा था
ताकि हम उन्हें काटतें रहें
फसलों की तरह
मौसम दर मौसम ।

उनकी धरती पर
बोते रहें अपना बीज
वे उसे पालें अपनी कोख में
और चलता रहे हमारा नाम
पीढ़ी दर पीढ़ी ।

हम मिल कर भोगें उन्हें
निखालिस साम्यवादियों की तरह ।

हर साल स्त्री दिवस पर
वे लिखती हैं मार्मिक कविताएँ
जलाती हैं मोमबत्तियाँ
किसी निर्भया, ज्योति या कमला की याद में
पर क्यों नहीं पढ़ पातीं
लकड़बग्घे का अलिखित संविधान !

स्त्रियो
किसी विभीषण की तरह
आगाह कर रहा हूँ तुम्हें,
यह पुरुष का चक्रव्यूह है
इसे पराक्रम से नहीं विवेक से बेधना होगा !